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प्यार v/s प्यार

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एक बार चाय पीते वक़्त चाय के ठेले पर लोगों से जान- पहचान सी हो गयी, ठेला बोलो या चाय की दुकनिया, वो नार्थ कैम्पस वालों के लिए वार्तालाप का अड्डा थी|  शहर था दिल्ली, तो लोगों का थोडा एडवांस होना स्वाभाविक था| उस अड्डे पर बड़े-बड़े विद्वान आकर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े मुद्दों पर विचार विमर्श करते और चाय की चुक्सकियों के साथ हर मुद्दे को घोल कर पी जाते| कुछ लोग हाथ फैला फैला कर बाते बनाते और सभी को यकीं दिलाने की उम्मीद से हर तरफ अपना सिर हिलाकर सहमती जताने के लिए उकसाते| परन्तु उनमें से कुछ महानुभाव ऐसे भी थे जो सारे वृतांत को सुनते और अंत में अपना निर्णय सुना कर चलते बनते| अगर गिनती की जाये उनमे सिर हिलाने वालों की तादात ज्यादा थी| एक दोपहर चाय पीने की लालसा लिए हम भी उस दुकनिया पर पहुचे, वो विद्वान, जिनकी चर्चा हमने पहले की थी, उनका ज्यादातर समय चाय की दुकान पर वार्तालाप में ही निकलता| उस वक़्त भी एक बड़ी तादात में लोग वहीँ थे| हमने अपनी बत्तीसी दिखा कर सबका अभिवादन स्वीकार किया और आँखों में सम्मान भाव लिए उन्हें भी स्वीकारने को कहा| और एक कोने में पड़ी टूटी बेंच पर जा बैठे|

दास्तान-ए-जिन्दगी

जब हमने शफ्फीक पलकों को उठाया         खिलवत का एक दौर चिलमन में नजर आया, वो दौर –ए- आशियां कुछ ऐसा था                    तसब्बूर में सब कुछ पाया,हकीकत में गवाया था सोचा वहश्त-ए-दिल किसी से बयां करे,              आलम-ए-आईना उसे भी बिखरा पाया, उसके टुकड़ों में दिखता था हमारा मजलूम                     उठा के जोड़ा तो दरारों से भरा पाया बहसत से चू र कर दिया, उन टुकड़ों को इस क़दर         न उसमे वो नजर आये न हमारा अक्स नजर आया|