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एक पत्र प्रकृति के नाम

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विकास पर विकास, विकास पर विकास, भईया कितना विकास? और किस-किस के लिए विकास? सुनकर बड़ी ख़ुशी होती है कि भारत आधुनिकीकरण और विकास के मामले में बड़ी तेज़ गति से भाग रहा है, कभी डिजिटल इंडिया की बात सुनने को मिलती है तो कभी अलग-अलग राज्यों में दौड़ती मेट्रो की| परन्तु महोदय हमारी चिंता का विषय बने हुए हैं बड़ी तेज़ गति से कटते पेड़- पौधे और बेघर होते पशु-पक्षी | इन्हें हमारे विकास में कोई रूचि नहीं | पशुओं को आज भी ज़मीन पर उसी तरह सोने की आदत है, जैसे वो आज से हज़ारों साल पहले सोते थे, और पक्षियों को आज भी पेड़ों पर घोंसले बनाने में उतने ही आनंद की अनुभूति होती है, जितने आज से हज़ारों साल पहले होती थी | परन्तु अब ना घर बनाने को पेड़ उतने बचे हैं और ना सोने को ज़मीन, सब पर मालिकाना हक़ है, तो वो सिर्फ इंसानों का | पक्षियों ने तो घरों में घर बना कर समझौता भी करने की कोशिश की, परन्तु हमारी जाति को चैन कहाँ - ये पक्षी बड़ी गंदगी करते हैं, बोल के, घोंसले बाहर निकाल फेंके | और तो और मैंने तो एक महोदय को ये भी कहते सुना कि सरकार को प्लानिंग करना ही नहीं आता, किसी अच्छे सिविल अभियंता को बुलाते जो इस मे

अभी रावण नहीं मरा है|

सुना था किसी युग में राम ने मारा था रावण, जानते हो क्यों मारा था? सीता का किया था हरण, लेकिन आज इस युग हर कोई सीता हरता है,  फिर भी, इस निकृष्ट समाज में सम्मान लिए फिरता है| असलियत तो यही है समाज रावणों से भरा है, राम तुणीर रिक्त हुआ  अभी रावण नहीं मरा है|