दास्तान-ए-जिन्दगी



जब हमने शफ्फीक पलकों को उठाया

        खिलवत का एक दौर चिलमन में नजर आया,

वो दौर –ए- आशियां कुछ ऐसा था
          
        तसब्बूर में सब कुछ पाया,हकीकत में गवाया था

सोचा वहश्त-ए-दिल किसी से बयां करे,

             आलम-ए-आईना उसे भी बिखरा पाया,

उसके टुकड़ों में दिखता था हमारा मजलूम

                   उठा के जोड़ा तो दरारों से भरा पाया
बहसत से चूर कर दिया, उन टुकड़ों को इस क़दर

        न उसमे वो नजर आये न हमारा अक्स नजर आया|

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